इस पुस्तक की अधिकतर कहानियाँ उस समय लिखी गईं जब मैं जयपुर के एक कॉलेज से हिन्दी और इंग्लिश लिट्रेचर में बी. ए. करके आया ही था. उस समय जहाँ मैंने हिन्दी लिट्रेचर में चतुरसेन शास्त्री, जय शंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तथा मुंशी प्रेम चन्द को पढ़ा था, वहाँ इंग्लिश लिट्रेचर में रॉबर्ट ब्राउनिंग, जॉन कीट्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपियर और चार्ल्स डिक्न्स जैसे लेखकों को पढ़ने का भी अनुभव हुआ. इसलिए मेरी कुछ कहानियों में इनके लेखों के कुछ प्रसंग प्रस्तुत करने की मुझे प्रेरणा मिली. आशा है आपको भी इन्हें पढ़ना रुचिकर लगेगा.
About the Author
श्याम कुमार (पूरा नाम श्याम सुंदर कुमार), एक भाई और पाँच बहनों के इस सबसे छोटे सदस्य का जन्म 5 दिसम्बर, 1945 को अविभाजित भारत के मुल्तान प्रांत (जो अब पाकिस्तान में है), में हुआ. इनके पिता नन्द लाल कुमार का कराची और मुल्तान में कपड़े और ड्राइ फ्रूट का परिवारिक व्यवसाय था. सन् 1947 में भारत विभाजन के समय इनका पूरा परिवार शरणार्थी के रूप में दिल्ली आ गया.
नव निर्मित पाकिस्तान से रेल द्वारा दिल्ली पहुँचने पर माता-पिता, उनकी चार युवा बेटियों और इस छोटे बच्चे के पूरे परिवार को कोई रहने का ठिकाना न होने के कारण कई रातें पुरानी दिल्ली रेलवे-स्टेशन के सामने फुटपाथ पर बितानी पड़ीं. कुछ समय पश्चात इनके बड़े भाई ने इस सात सदस्यों के परिवार के रहने के लिए पुरानी दिल्ली के सदर बाज़ार इलाक़े में एक-कमरे का मकान किराए पर लिया. पुरानी दिल्ली के नई सड़क इलाक़े में इनके पिताजी को बहुत ही कम वेतन पर एक कपड़े के व्यापारी के यहाँ मुनीम की नौकरी मिल गई.
उनके इस कम वेतन से घर को चला पाना कठिन था. इसलिए परिवार का हर सदस्य कुछ अतिरिक्त आय जुटाने के लिए कार्य-बध था. ये सब बाहर से काम लाकर घर में ही करते थे जिसमें जुराबों की सिलाई, धागों की नलकी पर लेबल लगाना, बादामों की गिरी निकालना जैसे काम शामिल थे. श्याम का स्कूल दोपहर की शिफ्ट का होने के कारण, वह सवेरे ही पुरानी दिल्ली की छोटी और तंग गली में बनी एक लॉली- पॉप और कैंडी बनाने की फैक्ट्री में जाता. यहाँ उसे तीन घंटे रोज़ काम करने के 25-30 रुपये महीने में मिल जाते.
श्याम कुमार की अधिकतर पढ़ाई दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हुई है तथा बी. ए. जयपुर में राजस्थान विश्व-विद्यालय से किया. इंग्लिश लिट्रेचर में एम. ए. का केवल एक वर्ष करने के पश्चात इन्हें अध्ययन छोड़ देना पड़ा क्योंकि इसके दूसरे और अंतिम वर्ष की पढ़ाई के लिए उनके पास पुस्तकें खरीदने के पैसे नहीं थे.
वर्ष 1968-2003 के बीच ये नई दिल्ली वाई. एम. सी. ए., जय सिंग रोड, नई दिल्ली में कार्य-रत रहे. इसी दौरान ही इन्होंने इस पुस्तक में लिखी हुई कई कहानियाँ लिखीं. इनके अतिरिक्त वर्ष 1996-1999 के बीच एक अँग्रेज़ी उपन्यास – दी लास्ट डॉन (The Last Dawn) भी लिखा जो वर्ष 2019 को प्रकाशित हुआ.
वाई. एम. सी. ए. से सेवा-निवृत होने के तुरंत बाद वे एक ट्रेवल मैनेजमेंट कम्पनी में प्रशासनिक-प्रबंधक के रूप में पाँच वर्ष तक काम करते रहे. इसके पश्चात लगभग छ: वर्ष तक लोधी रोड, नई दिल्ली के श्री साईं भक्ता समाज में प्रशासनिक-प्रबंधक के कार्य में व्यस्त रहे.
Binding | Paperback |
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Page Count | 216 |
Lamination | Gloss |
ISBN | 9789354389962 |
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