क्या हमारा सारा जीवन ही इस वो तो नहीं की संभावना से प्रेरित हुआ नहीं लगता! मन की अनिश्चित, असंगत, अकसर टेड़ी, उलझन मे डालने वाली चालो और उड़ानों पर भटकती होती है जिंदगी। ‘है या नहीं ‘के दो पाटो के बीच पीसते रहने को विवश। अक्सर वो तो नहीं की छांव मे थोड़ा शुकुन पाती हुई! पर अगर मगर के चक्कर सब कुछ गडमड सा लगता हुआ। कही वो तो नहीं, कहीं ये तो नहीं! इन दो धुरियों मे घुमता ही रहता है। जीवन चक्र! कैसा संयोग! कैसे रंग है जीवन के! जब जीना चाहा, जब प्यार चाहा, मिला नहीं। जिसके लिए सब कुछ छोड़ कर उसका होना चाहा, वो भी नहीं हो पाया। । जिसे भी चाहा मिला नहीं। और जब प्यार और खुशियाँ मिली भी तो अब! जब जीवन ही दांव पर लगा है। ऐसा लगता हुआ कि सब कुछ खत्म होने वाला है। आज एकाएक उसी जीवन से मोह सा हो गया! जब मृत्यु पास आती दिखी: अभी तो जिंदगी जी ही नहीं है! बहुत कुछ करना, देखना है और जीते जाना है….जब सब ओर मौत और विनाश का तांडव हो रहा होता। जब ऐसे बुरे फंसे हैं, चारो तरफ पानी। बाढ़ का पानी, बादल फटने की जल राशि मे जीवन अंत होना करीब तय सा लगता हुआ। तब जीने की इच्छा बढ़ती जाती। जैसे जीने की बढ़ती इच्छा और आसन्न मृत्यु के बीच कोई गहरा संबंध हो!
About Author
लेखक, गोपाल चौधरी एक आकादमिक शोधकर्ता है। अब तक अंग्रेजी मे तीन पुस्तके—पॉलिटिकल औडिटिंग: ए मनीफेस्टो फॉर रेस्कुइंग डेमोक्र्रेसी, द ग्रेटेस्ट फ़ार्स ऑफ हिसटरि और द crisis ऑफ वर्ल्ड एंड कृष्ण मोनिज़्म– प्रकाशित कर चुके हैं। हिन्दी मे यह आपका पहला उपन्यास है।आपने प्रजातन्त्र को मजबूत करने के लिए राजनैतिक अभिलेखन(पॉलिटिकल औडिटिंग) का एक प्रारूप (मोडेल) भी विकसित किया है।
Dimensions | 6 × 9 in |
---|---|
LAMINATION | Gloss |
BINDING | Paperback |
ISBN | 9789388930987 |
Reviews
There are no reviews yet.
Related products
₹199.00
₹249.00
Be the first to review “वो तो नही”